Sunday, September 9, 2012

शब्दों की यात्रा








 शब्दों की यात्रा



मित्रों -समाज ने सभ्यताएं रची ,सभ्यताओं ने संस्कृति का सृजन किया ,और समाज के भीतर इन दोनों ने मानवीय शक्ति का निर्माण किया , और इसी मानवता के शक्ति के विकाश का आधार भाषा है ,और भाषा में ही वेद ,उपनिषद ,रामायण ,महाभारत ,कुरान एवं बाईबिल है ,और इन्ही में एक साथ कर्म एवं धर्म की शिक्षा समाहित है ! जीवन जगत और आध्यात्म के रहस्य का आलोक भाषा के द्वारा उद्घाटित होती है ! धरती से अन्तरिक्ष तक की यात्रा शब्दों ने तय की है ! शब्दों ने पीढ़ी दर पीढ़ी मानव मानस में यात्रायें कीं है !..........................सादर

इस परिचर्चा में भागीदारी में उपर्युक्त विचार व्यक्त किये गये 
1-Ravindra K Das उत्तम लिखा
DrAvinash Sharma awesome PHILOSOPHY ( love to wisdom )
  • Santosh Choubey ज्यों ज्यों सभ्यता विकास करती है ,संस्कृति का क्षरण होता है ...

  • Ravi Shankar Pandey रविन्द्र जी --- आपका आभारी हूँ !..........सादर

  • S Chandra Sekhar सत्य को सुंदरता से परिभाषित करती आपकी पँक्तियाँ ..
    वंदन रविशंकर जी ..

  • Ravi Shankar Pandey डा० साहब ---बहुत- बहुत धन्यवाद

  • Ravi Shankar Pandey संतोष जी -- सभ्यता के विकाश एवं संक्कृति के क्षरण पर आपके विचार आमंत्रित है .............सादर

  • Drr Achal आज सभ्यता विकास के उस बिन्दु पर पहुँच चुकी है कि वह मनुष्यता के विरुद्ध खडी है?

  • Anju Mishra अति उत्तम अभिव्यक्ति है. sir!!

  • Ravi Shankar Pandey राम अचल जी ---- आईये थोड़ी विस्तार से चर्चा करते है !...........(सभ्यता का उत्कर्ष क्या है ?............सादर

  • Santosh Choubey मानव-विकास (evolution) को अध्ययन की सुविधा के लिए सभ्यता के आरोही संस्तरों में विभक्त किया गया है ..जब भी मानव जीवन ने सभ्यता के उच्चतर संस्तर को छुआ पिछली संस्कृति स्वाभाविक तौर पर अप्रासंगिक,रूढी,पिछड़ी नजर आने लगी ..मसलन पाषाण-काल की सभ्यता जब ताम्र-पाषाण में तब्दील हुयी तो पाशन -संकृति क्षरित हुयी ,वैसे ही १००० इ.पु. में लोहे की खोज ने कांस्य -संस्कृति को तकरीबन हाशिए पर खड़ा कर दिया ..

  • Anju Mishra प्रतीत होता है विकास अपनी अंतिम सीमा पर पहुच चुका है . जहा से नव युग का आरम्भ होता है।

  • Santosh Choubey जी अंजू जी ...संभवतः इसी कारण संस्कृति से जुडी कोई भी चीज़ आज के मानव को अजूबा या मुक्तिबोध के शब्दों में "औरंग-उटान" दिखती है ...

  • Santosh Choubey civilization has reached it's zenith while culture is touching it's nadir..

  • Ravi Shankar Pandey संतोष जी -- सभ्यता के क्रमिक विकाश के क्रम में होमोसेम्पियास ,से लेकर पाषाण काल , ताम्र युग तौह युग , और उस यात्रा में हमने अपने अतीत के अनुभव को नहीं छोड़ा ,उदाहरण के लिए चित्र कला में हमें पाषाण युग की भी कृतिया मिलती है , क्रमश: हथियारों के प्रयोग और उसके मूल उत्स में जो था वह आज भी विद्दमान है ....................सादर

  • Ravi Shankar Pandey संतोष जी ---- मुक्तिबोध संदर्भो में आज भी है ...............सादर

  • Santosh Choubey मैंने ऐसा कभी नहीं कहा कि मानव ने अपने अतीत के अनुभवों से सम्पूर्ण-पार्थक्य हासिल कर लिया ..बल्कि उन्हीं अनुभवों की सीढियाँ चढ कर तो सभ्यता के उच्चतर स्तर को अर्जित किया गया ..सभ्यता में सातत्य के चिन्ह तो स्वाभाविक तौर पर रहेंगे ही ..परन्तु संस्कृति क्षरित होती गयी ...

  • Ravi Shankar Pandey संतोष जी --- संस्कृति आज भी विद्दमान है ........हम सभी के बीच.......संस्कृति .निर्वाध प्रक्रिया है ..............सादर

  • Santosh Choubey जी ...बल्कि एक खास संस्कृति है ..यदि सभ्यता ने अपना विकास-क्रम यों ही जारी रखा तथा एक और उच्चतर स्तर को छुआ तो वर्तमान संस्कृति भी लुप्त हो जायेगी ....यह प्रक्रिया इतनी धीमी और चुपचाप है कि लगभग आ-प्रेक्षणीय ..

  • Anju Mishra bahut khub !!!!

  • Kunwar Kusumesh sahi kaha aapne.

  • Drr Achal रविजी, यहाँ सभ्यता से मेरा तात्पर्य उसकी वर्तमान अवधारणा से है जो प्रकृति , संस्कृति और स्वास्थ्य को विकृत कर जैवजगत के अस्तित्व पर ? लगा दिया है।

  • Santosh Choubey बड़े भाई पांडेजी..आप भी मेरी तरह पूर्वी उत्तर-प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं ,जरा सोचिये आज से ५० साल पहले भिखारी ठाकुर और बिदेसिया हर घर में एक जाना-पहचाना नाम था ...इस अमूल्य साहित्य पर आधारित असंख्य नाटक -लोकगीत -लोक-परम्पराएँ प्रचलित ,बल्कि जबान जबां पर थीं ,आज क्यूँ उसी क्षेत्र के लोग भी भिखारी ठाकुर और उनके साहित्य से पूरी तरह अनजान हैं ...मैं बताता हूँ ..इसका कारण यही है कि सभ्यता ने ५० वर्षों में एक नए चरण में प्रवेश किया और परिणामतः पिछली संस्कृति लुप्त-प्राय या लगभग अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुँच गयी...

  • Satya Mitra Dubey Atyant Suvicharit Tippanee

  • Santosh Choubey जैसा कि आप कह रहे हैं ..संस्कृति आज भी विद्यमान है पर वह विशिष्ट तत्व जो सभ्यता के पिछले स्तर पर प्रमुख थे ,आज सिरे से नदारद हैं ,,,आज कि संस्कृति में भिखारी ठाकुर को शकीरा /लेडी गागा /इन्रिक इग्लेसियास ने पूरी तरह विस्थापित कर दिया है

  • Anju Mishra eska mul karan gatisheelta hai.sanskriti par bhi tatkaleen paristhitiyon evam parivartansheelta ka prabhav padta hai.prachin logon ka sthan naveen logon ne grahan kiya hai...!!!!

  • Ravi Shankar Pandey संतोष जी ----संस्कृति से मेरा आशय संस्कारों से है .......अगर हम क्षेतीय स्तर पर अपनी संस्कृति की व्याख्या करेगे , तो निष्कर्षो तक पहुचना कठिन होगा .....संस्कृति क्षेत्रीय नहीं ,सर्भौमिक है ,सम्पूर्ण रूप से देखना होगा ............सादर

  • Anil Kumar Pathak bahut badiya bhai

  • Ravi Shankar Pandey अंजू जी --- आपने सच कहा ,अतीत का वर्तमान पर अचेतन प्रभाव पड़ता है ...........सादर

  • Anju Mishra bilkul satya kaha hai aapne sir..

  • लोंगो ने शब्द को ब्रम्ह कहा .नाद की अनु गूँज में ब्रम्हानुभूति होती है ,शब्द हमारे अनुभूत को भाषा देते है ,जो हमारी अभिब्यक्ति का माध्यम है /शब्द अपने अर्थ बदलते हैं/शब्द अपने अर्थ विस्तार भी करते हैं और अर्थ संकोच भी करते हैं ,शब्द अपने रूप भी बदलते हैं स्थान भी /संज्ञा से विशेषण बन जाते हैं ,शब्द अनेकार्थी भी होते है ,इनकी अपनी अभि ब्यंजन होती है ,इनकी अपनी शक्ति होती है,ये गम भी हो जाते हैं / इन्ही सब में भाषा का लालित्य छिपा होता है ..संस्कृति और सभ्यता की आपसी तुलना ठीक नहीं लगती, सभ्यता स्थूल होती है, संस्कृति शूक्ष्म /सभ्यता संस्कृति का एक बहुत छोटा सा हिस्सा योगदान देती है /कई कई सभ्यताएं मिलकर एक संस्कृति को प्रभावित कर पाती है किन्तु बदल नहीं पांती उसी में समाहित हो जाती हैं .......चर्चा में शामिल होने के लिए आज इतना ही .

  • Ravi Shankar Pandey अंजू जी --- जन्म से हम संस्कारों में जीते है /पहले माँ के गर्भ में ,उसके बाद समाज से , संस्पर्शन होता है और फिर तत्कालीन समाज में ! हम अपनी जीवन पद्धतियों के अनुरूप जीवन जीते है .........और जीवन पर्यंत उसी में खप जाते है ..............सादर

  • Nitesh Kumar Mishra Chanchal bahut badhiya vichar hai..........Gyanvardhak

  • Anju Mishra ji sir,sanskaar hame janm se purv hi milne lagte hai,wo sanskaar jeevan paryant hamare aachar evam vichar me samahit rahte hai..,

  • संस्कार हमारी लौकिक जीवन पद्धति होते हैं उसी से आगे चलकर आभिजात्य का विकास होता है बिनालोक के कोई आभिजात्य नहीं होता .यह सब कुछ हमें हमारी स्मृतियों के माध्यम से मिलता है यही सब कुछ हमें जिजीविष देते हैं

  • Santosh Choubey क्षेत्रीयता /आंचलिकता पर मेरा कोई आग्रह नहीं है ,बल्कि वह महज एक उदहारण के तौर पर उल्लेख था अपने तर्क के समर्थन में ...

  • Santosh Choubey और तर्क मेरा अब भी वही है ..कि सभ्यता के विकास के साथ संस्कृति का क्षरण अवश्यम्भावी है..

  • Ravi Shankar Pandey अंजू जी ---- मैंने उसी संस्कृति जनित संस्कार की बात कर रहा था ,उसमे किसी भी तरह का बदलाव नहीं आया है ,................................ सादर

  • Ravi Shankar Pandey अनुज ---- उपरोक्त को थोडा विस्तार दें ...............सादर

  • Drr Achal रवि जी यथार्थतः संस्कृति की कोइ सारभौमिक अवधारणा नही होतीहै. विराट प्रकृति के सीमांकन-नामांकन से भिन्न भिन्न संस्कृतियो का उद्भव होता है जैसै असम और राजस्थान या चीन और अफ्रिका का सांस्कृतिक अन्तर। निशा मंगलम्

  • Vijay Kumar Singh well said bhai saheb.

  • Ravi Shankar Pandey आदरणीय सरोज मिश्रा जी ---- आपकी टिप्पणी सारगर्भित लगी ,थोडा और विस्तार दें ............सादर

  • Ravi Shankar Pandey राम अचल जी -----आपने सच ही कहा प्रकृति का सीमांकन कैसे किया जा सकता है ! यहाँ संसिकृतिक सारभौमिकता की बात चल रही है , आप इसे थोडा विस्तार दें .................सादर

  • राजशेखर 'एकाकी' bhasha ne insaan ko nit nayi sambhaavnaye di hain....... isi se insaan itni pragati kar paya.

  • Ravi Shankar Pandey आप सभी मित्रों से विनम्रता पूर्वक निवेदन है की कल पुन: अपनी टिप्पणी दे .................सादर

  • Rajshekhar Pandey ºबहुत ही अच्छा विमर्श छेड़े है सर ..शिरी गुफ्तारी का सिलसिला युही चलता रहे .....«like» ºff20º

  • Rahul Banerjee शब्‍द महान है कि अनुभुति

  • Drr Achal रवि जी, प्रकृति का सीमांकन करना नही पडता है उसका व्यवहार स्वयं उसे सीमांकित कर देता है इस एक पृथ्वी ग्रह पर ही भिन्न 2 क्षेत्रो मे जल सूर्य वायु अग्नि का व्यवहार/प्रभाव भिन्न भिन्न होताहै जिसके अनुरुप वहाँ (जीवन) पेड पौधे जीव जन्तु मानव पनपता है जो उसी के अनुसार भोजन वस्त्र एवं जीने की शैली आनन्दित हो ने के सूत्र संम्प्रेषण माध्यम विकसित होता है इसी स्थानिक कारण से प्रकूति सीमांकित होकरभिन्न भिन्न सँस्कूतियो को जन्म देतीहैः

  • Avdesh Yadav ji bilkul sahi baat hai....

  • Ravi Shankar Pandey राम अचल जी ---आपने प्रकृति के सीमांकन, को प्रकृति की तरह ही याख्यायित किया .....बहुत ही अच्छा लगा पड़ कर , ........सादर

  • Ravi Shankar Pandey मेरा एक बार पुन: आप सभी से निवेदन है की परिचर्चा को थोडा और विस्तृत करे

  • Anil Kumar Pathak bahut hi badiya hai bahut hi rochak or gyaan parak kathan or vaktavy hai aapke aapke is pryaas ko meri bahut bahut shubhkaamnaayen or badhaai

 

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